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अमन के पैगम्बर ने जब एक निडर जुझारू रास्ता अपनाया

एक बार 14 अगस्त 1947 को जब पाकिस्तान एक ऐसी हकीकत बन गया, जिसे वह बदल नहीं सके तो महात्मा गांधी ने पूरे उपमहाद्वीप पर कहर बरसाने वाले विभाजन की भयावहता को दबाने के लिए पूरे समर्पण के साथ खुद को लगा दिया। उन्होंने 15 अगस्त को आजादी का जश्न मनाने से इनकार कर दिया, जो भारत के विभाजन की कीमत पर आया था। ऑल इंडिया रेडियो को आश्चर्यचकित करते हुए कहा कि उनके पास कहने के लिए कुछ भी नहीं है, और किंकर्तव्यविमूढ़ बीबीसी को कहा कि उनको भूल जाना होगा कि कि वे अंग्रेजी जानते थे। इसके बजाय उन्होंने क्रूरता से घिरे और पस्त बंगाल में शांति और धीरज के लिए प्रयास करने का काम चुना। 15 अगस्त को वह दिल्ली के बजाय अभूतपूर्व रक्तपात की आशंका से कांपते कलकत्ता में थे, जबकि उनके नामित उत्तराधिकारी आजादी और ब्रिटेन की पहुंच से परे सत्ता की संभावना का जश्न मना रहे थे।

कलकत्ता में एक अकेले, परित्यक्त घर से अपने नैतिक साहस के अमृत का उपयोग करके गांधीजी ने बंगाल में और इस तरह पूरे पूर्वी भारत में अमन कायम किया। यहां तक कि "द स्टेट्समैन" के घाघ ब्रिटिश संपादकों ने भी गांधीजी की उपलब्धि को एक चमत्कार के रूप में वर्णित किया। लेकिन पश्चिम में पंजाब, सिंध, दिल्ली और सीमांत प्रांत विभाजन के बाद अविश्वसनीय और अमानवीय नरसंहार के उन्माद से पीड़ित हुए थे। सब कुछ गंवा चुके शरणार्थियों के लिए गांधीजी की आवाज, दिल और आदर्श एक मनोवैज्ञानिक आश्रय बन  गए, हालांकि वह बर्बर हिंसा के खिलाफ गुस्से को पूरी तरह से खत्म नहीं कर सके। सितंबर से गांधीजी ने शिविरों में आने वाले के लिए लाखों रजाई बनवाने जैसे व्यावहारिक प्रयासों का नेतृत्व किया, जो कि बेघर और टूट चुके हुए लोगों के आवास होने वाले थे। उन्होंने हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों के गुस्से को शांत करने की कोशिश की, जो सत्ता के लालाच में अंधे राजनेताओं द्वारा किये गये इस समझौते की वजह से अपना सब कुछ खो चुके थे।

उस कहर के दौरान जो लोग अभी भी मानवता में विश्वास करते थे, वे केवल गांधीजी पर  भरोसा करते होंगे। 15 अक्टूबर, 1947 को गुमनाम लेकिन स्पष्ट रूप से मुस्लिम कारीगरों का एक समूह शरणार्थियों के बीच बांटने के लिए कंबल और पैसे लाया। गांधीजी ने इस दान को रिकॉर्ड में रखा। “उन्होंने अपना नाम भी नहीं दिया है। मैंने उन्हें उन चीजों को स्वयं अपने पीड़ित साथियों के बीच बांटने के लिए कहा। लेकिन उन्होंने कहा कि वे गांधीजी के हाथों में ये चीजें सौंपना चाहते थे, क्योंकि पश्चिम पंजाब में पीड़ित हिंदू और सिखों के बीच ऐसी चीजें वितरित की जानी चाहिए।" मुझे उनकी भावना ने छुआ। वर्तमान परिस्थितियों में भले कुछ ही मुसलमान या हिंदू या सिख ऐसी बातें करते हों, उन्हें स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि एक समय में वे मुझे मुसलमानों का दुश्मन मानते थे, लेकिन अब उन्हें यकीन हो गया था कि मैं सबका दोस्त हूँ। मुझे इसके लिए किसी से प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है। मैं इस भावना में पांच या सात साल से नहीं बल्कि पिछले 60 वर्षों से जी रहा हूँ ”(महात्मा गांधी के संग्रहित कार्य, खंड 97, प्रकाशन विभाग, पृष्ठ 91)।

नागरिक संघर्ष के जहर के बीच दो नए देशों के बीच युद्ध की आशंका की छाया भी बढ़ रही थी। तनाव का रोगाणु जम्मू और कश्मीर का भविष्य था, जो अभी तक किसी भी राष्ट्र में शामिल नहीं हुआ था। 27 सितंबर, 1947 को गांधीजी ने एक बात स्पष्ट की, "संघ और पाकिस्तान के बीच युद्ध की स्थिति में भारतीय संघ के मुसलमानों को पाकिस्तान के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए।" अहिंसा के पैगंबर राष्ट्रवाद के कर्तव्यों के बारे में पूरी तरह से पारदर्शी थे, जैसा कि वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ अपनी प्रतिबद्धता के बारे में थे। वह युद्ध नहीं चाहते थे, लेकिन यदि यह शुरू किया गया तो प्रत्येक भारतीय के दायित्वों को स्पष्टता के साथ बताया। जैसा कि गांधी ने जूलियन हक्सले को लिखा था, "मैंने अपनी अनपढ़ लेकिन बुद्धिमान माँ से सीखा है कि जो सभी अधिकार उचित हैं और संरक्षित किए गए वे एक कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने से आये हैं।" (यह पत्र 17 अक्टूबर, 1947 के संयुक्त राष्ट्र साप्ताहिक बुलेटिन में प्रकाशित हुआ था)।

विभाजन के कारण गर्व और गुमान के बीच अंतर करने में असमर्थ, चर्चाओं की प्रतीक्षा करने के लिए राजी नहीं होने वाले मुहम्मद अली जिन्ना के पाकिस्तान ने अक्टूबर 1947 के अंतिम सप्ताह में कश्मीर पर कब्जा करने के लिए पहले एक सशस्त्र हमला शुरू किया। इससे जो युद्ध शुरू हुआ है वह सात दशक बाद भी बंद नहीं हुआ। पाकिस्तान के अचानक सैन्य हमले का पहला आधिकारिक उल्लेख प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने शुक्रवार, 24 अक्टूबर की रात को थाईलैंड के विदेश मंत्री के सम्मान में दिये गए रात्रिभोज में किया था।

अगली सुबह डोमिनियन ऑफ इंडिया के अंतिम वायसराय और पहले गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने रक्षा समिति की बैठक की अध्यक्षता की। जिसमें भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ लेफ्टिनेंट जनरल रॉब लॉकहार्ट ने पाकिस्तान सेना के मुख्यालय से आए एक टेलीग्रॉम को पढ़ा। जिसमें कहा गया था कि करीब पाँच हजार कबायलियों ने मुजफ्फराबाद और डोमेल पर हमला करके कब्जा कर लिया और कबायलियों के और ज्यादा लोगों के जुड़ने की आशंका की जा सकती है। गवर्नर जनरल के प्रेस सचिव एलन कैंपबेल-जॉनसन द्वारा लिखी गई डायरी (1951 में मिशन विद माउंटबेटन के रूप में प्रकाशित) के अनुसार रिपोर्ट से पता चला था कि वे पहले से ही श्रीनगर से महज पैंतीस मील की दूरी पर थे।

जम्मू और कश्मीर के उन्मत्त और सकते में आए महाराजा हरि सिंह ने दिल्ली से सशस्त्र मदद का अनुरोध किया, लेकिन माउंटबेटन ने सहायता के लिए जरूरी शर्त के रूप में भारत में विलय पर जोर दिया। माउंटबेटन तब भी ब्रिटिश सम्राट के प्रतिनिधि थे और ब्रिटिश अधिकारी अभी भी भारतीय मामलों के नियंत्रक थे।

सेना ने कागजी कार्रवाई किए बिना श्रीनगर में भारतीय सैनिकों को भेजने का कभी समर्थन नहीं किया।

कैम्पबेल-जॉनसन ने उल्लेख किया, "महाराजा के विलय ने अब तक की कार्रवाई को पूरी तरह वैधता प्रदान की।" इस तरह विलय को स्वीकार करने वाला पहला विदेशी देश ब्रिटेन  बन गया। दरअसल जब श्रीनगर में भारतीय सैनिकों के आने का जवाब देने के लिए जिन्ना ने पाकिस्तान सेना के कमांडर-इन-चीफ के रूप में नियुक्त लेफ्टिनेंट जनरल सर डगलस ग्रेसि को अपनी सेना को औपचारिक रूप से लड़ाई में भेजने का आदेश दिया, तो ग्रेसि ने जवाब दिया कि वह सुप्रीम कमांडर [माउंटबेटन] की मंजूरी के बिना ऐसा कोई निर्देश जारी करने के लिये तैयार नहीं हैं।

स्वतंत्रता के पिता गांधीजी को उनके नामित उत्तराधिकारियों ने इन निर्णायक घटनाक्रमों की जानकारी नहीं दी थी। बाद में बिना किसी अफसोस के बगैर गांधीजी ने कहा कि वह केवल वही जानते थे, जो अखबारों में छपता था। उन्होंने व्यक्तियों और प्रतिनिधिमंडलों से मिलने और शाम को प्रार्थना सभाओं को आयोजित करने के अपने सामान्य कार्यक्रम को जारी रखा।

25 अक्टूबर, 1947 को  उन्होंने देशभक्ति के अभाव के लिए कम्युनिस्टों के एक समूह को फटकारा, “असहमति पैदा करने, असंतोष पैदा करने और हमले को संगठित करने को कम्युनिस्ट अपना सर्वोच्च कर्तव्य, अपनी सर्वोच्च सेवा मानते हैं… ये लोग ज्ञान और निर्देश रूस से चाहते हैं। हमारे कम्युनिस्ट इस दयनीय स्थिति में प्रतीत होते हैं। ”

26 अक्टूबर को मुस्लिमों का त्योहार बकरीद का मनाया गया। गांधीजी का समुदाय के लिए एक शक्तिशाली संदेश था, “अहिंसा को हमेशा हिंसा के बीच, क्रूरता के बीच दया, असत्य के बीच में सच्चाई, घृणा के बीच में प्यार की परीक्षा की जाती है। यह सनातन नियम है। यदि इस शुभ दिन पर हम सभी ने खून के लिए खून नहीं बहाने के लिए एक पवित्र संकल्प किया, इसके बजाय हमने सुरक्षा देने की पेशकश की तो हम इतिहास बनाएंगे। यीशु मसीह ने क्रूस से उन लोगों को क्षमा करने की प्रार्थना की जिन्होंने उन्हें क्रूस पर चढ़ाया था। यह भगवान से मेरी निरंतर प्रार्थना है कि वह मुझे मेरे हत्यारे की भी रक्षा करने की शक्ति दे। और यह आपकी प्रार्थना भी होनी चाहिए कि आपके वफादार सेवक को क्षमा करने की ताकत मिल सके ”(महात्मा गांधी में गांधी के सचिव प्यारेलाल द्वारा उद्धृत: अंतिम चरण, खंड 2)।

कश्मीर पर गांधीजी की पहली टिप्पणी 26 अक्टूबर, 1947 की शाम को उनकी प्रार्थना सभा में आई थी: “हां, मैं कश्मीर के बारे में काफी जागरूक हूं। लेकिन मुझे सिर्फ वही पता है, जो अखबारों में छपा है। यदि वे सभी रिपोर्ट सही हैं, तो यह वास्तव में खराब स्थिति है। मैं केवल इतना कह सकता हूं कि हम इस तरीके से न तो अपने धर्म को बचा सकते हैं और न ही अपने आप को। खबर है कि पाकिस्तान कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने की कोशिश कर रहा है। ऐसा नहीं होना चाहिए। बलपूर्वक किसी से कुछ लेना संभव नहीं है। ”

उन्होंने कहा: "लोगों पर हमला नहीं किया जा सकता है और उनके गांवों को जलाकर मजबूर नहीं किया जा सकता है। अगर कश्मीर के लोग अपने मुस्लिम बहुमत के बावजूद भारत में शामिल होने की इच्छा रखना चाहते हैं, तो कोई भी उन्हें रोक नहीं सकता है। अगर वे कश्मीर के लोगों को मजबूर करने के लिए वे वहां जा रहे हैं, तो पाकिस्तान सरकार को अपने लोगों को रोकना चाहिए । यदि वह ऐसा करने में विफल रहती है, तो उसे पूरे दोष का जिम्मेदार बनना पड़ेगा। ”

अगले दिन गांधीजी ने संयुक्त बंगाल के अंतिम प्रीमियर हुसैन शहीद सुहरावर्दी को लिखा, जिन्होंने अगस्त 1946 के सांप्रदायिक दंगों को भड़काने में निभाई गई विवादास्पद भूमिका के लिये गांधीजी के आग्रह पर 1947 में अपना दोष सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था। गांधीजी दिनांक 27 अक्टूबर, 1947 के पत्र में जोर देकर कहते हैं,  "हिंदू और मुसलमान दो राष्ट्र नहीं हैं। मुसलमान कभी भी हिंदुओं के गुलाम नहीं होंगे और न ही मुसलमानों के हिंदू। इसलिए आपको और मुझे दोस्तों और भाइयों के रूप में एक साथ रहने की कोशिश में मरना होगा, जो वे हैं।” गांधीजी ने इस तथ्य में बिल्कुल विरोधाभास नहीं देखा कि एक मुस्लिम बहुल राज्य भारत संघ में शामिल होना चाहता था।

29 अक्टूबर तक भारतीय सैनिकों ने श्रीनगर हवाई अड्डे को बचा लिया था, लेकिन राजधानी के पांच मील के भीतर भारी लड़ाई जारी थी। गांधीजी ने माउंटबेटन के साथ 90 मिनट की बातचीत की और अंतत: उनको मौजूदा संकट के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई। उस शाम अपनी प्रार्थना सभा में गांधीजी ने भारत के युद्ध प्रयासों के बारे में विस्तार से बात की। उन्होंने इसे "एक आश्चर्यजनक कहानी" के रूप में वर्णित किया।

गांधीजी ने कहा कि माउंटबेटन ने महाराजा हरि सिंह के भारतीय संघ में विलय करने के निर्णय का "स्वागत" किया और भारतीय सैनिकों को भेजने के निर्णय की सराहना की। उन्होंने हवाई रास्ते से सेना की आवाजाही में आने वाली कठिनाइयों को समझाया और लगभग 1,500 भारतीय सैनिकों की बहादुरी की सराहना की करते हुए कहा कि वे "उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत से बड़ी संख्या में आए हथियारबंद लोगों के खिलाफ लड़ रहे हैं।" वे कबायलियों का जिक्र करते हैं, जिनको प्रशिक्षित करने, हथियारबंद करने और उनके नेतृत्व का कार्य प्रच्छन्न आवरण में पाकिस्तानी अधिकारियों द्वारा किया गया था।

गांधीजी ने शेख अब्दुल्ला की प्रशंसा करते हुए उन्हें "कश्मीर का शेर" कहा, जिन्होंने सरकार की कमान संभाली थी। महात्मा ने कहा कि "एक अकेला व्यक्ति जो भी कर सकता था … वह कर रहा था।" राज्य के लोग उसके साथ थे, लेकिन हमलावर कबायलियों द्वारा बर्बरता के इस माहौल में भी वे अपनी प्रतिक्रिया में इस तरह के स्तर तक नहीं उतरेंगे। इस मामले को पेशेवर सैनिकों के पास छोड़ना ही उचित जवाब था। "उन्हें क्या करना चाहिए? उन्हें अंत तक लड़ने और लड़कर के शहीद होने देना चाहिए। सशस्त्र सैनिकों का काम आगे बढ़ना और हमलावर दुश्मन को पीछे धकेलना है। वे लड़ते हुए मर जाते हैं लेकिन कभी पीछे नहीं हटते … इसलिए इन 1,500 सैनिकों ने एक प्रयास किया। लेकिन वे वास्तव में अपना कर्तव्य निभाएंगे, जब सभी श्रीनगर को बचाने में अपना जीवन दांव पर लगा देंगे। और श्रीनगर के साथ पूरे कश्मीर को बचाया जाएगा।”

नागरिकों के लिए बलिदान के प्रसंग पर गांधीजी ने कहा, “यदि कोई कश्मीर को बचा सकता है, तो वह केवल मुसलमान, कश्मीरी पंडित, राजपूत और सिख हैं, जो ऐसा कर सकते हैं। शेख अब्दुल्ला के सभी के साथ स्नेही और मैत्रीपूर्ण संबंध हैं। यह संभव है कि कश्मीर को बचाते समय शेख अब्दुल्ला को अपना जीवन बलिदान करना पड़े, उनकी बेगम और उनकी बेटी को मरना होगा और कश्मीर की सभी महिलाओं को मरना होगा। और अगर ऐसा होता है, तो मैं एक भी आंसू नहीं बहाने जा रहा हूं। यदि हमें युद्ध करने के लिए उकसाया जाता है, तो युद्ध होगा। ”

गांधीजी देख सकते थे कि कबायली आक्रमण पाकिस्तान के समर्थन के बिना जीवित नहीं रह सकता था, भले ही कराची इसे "स्वतंत्र विद्रोह" कह रहा हो। सैन्य हमले और नागरिक बलिदान के साथ इस आक्रमण को हराने की जरूरत के बारे में उनके पास कोई हिचक नहीं थी: “अगर कश्मीर के लोग लड़ाई में मर जाते हैं, तो कौन पीछे रह जाएगा? शेख अब्दुल्ला चले गए होंगे, क्योंकि उनकी शेरदिली में कश्मीर के लिए लड़ने और अपनी अंतिम सांस तक उसे बचाने के लिए मरना शामिल है। वह मुसलमानों और सिखों और हिंदुओं को भी बचाएगा। शेख एक कट्टर मुस्लिम है। उनकी पत्नी भी नमाज़ अदा करती हैं। उसने अपनी सुरीली आवाज में मुझे औज़ोबिल्ही सुनाया था। मैं उसके घर भी गया हूँ। वह मुसलमानों के सामने हिंदुओं और सिखों को मरने नहीं देंगे।

गांधीजी ने अगस्त 1947 के पहले सप्ताह में कश्मीर घाटी की अपनी एकमात्र यात्रा के दौरान बेगम अब्दुल्ला से मुलाकात की थी। उन्होंने पाकिस्तान की आशा के खिलाफ कश्मीर के संघर्ष और उस जहर के प्रति विरोध को देखा, जिसने सांप्रदायिक हैवानियत के बाद लोगों को दूषित कर दिया था।

“क्या है, अगर हिंदू और सिख वहां अल्पसंख्यक हैं? यदि यह शेख का रवैया है और अगर मुसलमानों पर उसका प्रभाव है, तो हमारे लिये सब ठीक है। हमारे बीच जो जहर फैला है, वह कभी नहीं फैलना चाहिए। कश्मीर के ज़रिए इस ज़हर को हमसे दूर किया जा सकता है। यदि वे उस जहर को हटाने के लिए कश्मीर में ऐसा बलिदान करते हैं, तो हमारी आँखें भी खुल जाएंगी। कबायली केवल हत्या करने में रुचि रखते हैं। इसलिए उन्होंने कश्मीर पर आक्रमण किया और अपनी ताकत भी दिखाई। मैं उन सभी को जानता हूं जो उनके साथ हैं। लेकिन इसका नतीजा यह होगा कि अगर कश्मीर के सभी हिंदू और मुसलमान अपनी जान दे देते हैं, तो इससे हमारी आंखें भी खुल जाएंगी। तब हमें पता चलेगा कि सभी मुसलमान निष्ठाहीन और बुरे नहीं थे, उनमें कुछ अच्छे लोग भी थे। इसी तरह यह भी सच नहीं है कि सभी हिंदू और सिख अच्छे या संत या बेकार और काफ़िर हैं। मेरा मानना ​​है कि सभी हिंदुओं और मुसलमानों और सिखों के बीच अच्छे लोग हैं। और हथियारबंद लोगों के कारण नहीं, बल्कि इन अच्छे लोगों के कारण दुनिया आगे बढ़ती है।”

गांधीजी ने अपनी बात एक विजयी टिप्पणी पर समाप्त की, जैसा कि उन्होंने बलिदान की परिमार्जन की शक्ति की कल्पना की थी, "अगर कश्मीर में हर किसी को अपनी मातृभूमि को बचाने में मरना पड़े तो भी मैं खुशी से नाचूंगा।"

कैंपबेल-जॉनसन ने रिपोर्टों में गांधी की तुलना स्पार्टन्स से की है, जिसे  महात्मा के भाषणों के दौरान उनके सहयोगियों द्वारा तैयार किए गए सार से निकाला गया है। (अंतिम संस्करण जारी होने से पहले गांधी हमेशा मसौदे की जाँच करते थे।) ब्रिटिश डायरी लेखक का विवरण विश्वसनीय है, क्योंकि गांधी इससे बहुत प्रभावित रहे हैं और उन्होंने स्पार्टन्स के साहस का लगातार कई संदर्भों में उल्लेख किया। यह नवंबर 1946 और फरवरी 1948 के बीच नोआखली में उनके महीनों के दौरान एक निरंतर संदर्भ बिंदु था। कैंपबेल-जॉनसन 29 अक्टूबर की अपनी प्रविष्टि में याद करते हैं, इसे स्पष्ट रूप से देर रात में लिखा है, कि "महात्मा ने कश्मीर पर लगभग चर्चिल के समान टिप्पणी लिख मारी। उसकी लाइन थी: परिणाम भगवान के हाथों में था, इंसान केवल कर सकते थे या मर सकते थे। अगर थर्मोपोल का बचाव करने वाले स्पार्टन्स की तरह संघ के छोटे से बल का सफाया हो जाता,  तो भी वह आंसू नहीं बहाते, न ही वह कश्मीर की रक्षा में शेख अब्दुल्ला और उसके  मुस्लिम, हिंदू और सिख साथियों की उनकी चौकी पर मौत का बुरा मानते। यह शेष भारत के लिए एक शानदार उदाहरण होगा, इस तरह की वीरतापूर्ण रक्षा पूरे उप-महाद्वीप को प्रभावित करेगी और हर कोई यह भूल जाएगा कि हिंदू, मस्जिद और सिख कभी दुश्मन थे।”

इस बीच माउंटबेटन जिन्ना को हमले को खत्म करने के लिए राजी करने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने लाहौर में जिन्ना से मुलाकात की और अपने प्रेस सचिव से कहा कि वह साढ़े तीन घंटे की बातचीत से बहुत खुश थे, हालांकि इसके बारे में वह बहुत अधिक प्रसन्न दिखाई नहीं दे रहे थे। जैसा कि रविवार, 2 नवंबर की प्रविष्टि में दर्ज किया गया था, माउंटबेटन ने कैंपबेल-जॉनसन को बताया कि दोनों इस तर्क में उलझ गए कि युद्ध के लिए कौन जिम्मेदार था, इससे बातचीत एक  "दुष्चक्र" में खत्म हो गई। माउंटबेटन इस बात से सहमत थे कि विलय को वास्तव में हिंसा द्वारा अमल में लाया गया था, लेकिन हिंसा कबायलियों के माध्यम से आई थी, जिनके लिए भारत नहीं बल्कि पाकिस्तान जिम्मेदार था।”

निजी तौर पर किसी को कोई संदेह नहीं था कि जिन्ना ने कश्मीर में इस "स्वतंत्र विद्रोह" का आदेश दिया था और इसे आयोजित किया था। जिन्ना ने यह कहते हुए ठेठ झगड़ालू तरीके का इस्तेमाल किया कि भारत ने सैनिकों को भेजकर हिंसा शुरू की थी, जो तथ्यों का विरोधाभासी व साफतौर पर उलटा था। माउंटबेटन ने अपना पक्ष मजबूती से रखा और " इस तरह यह तब तक चला जब तक जिन्ना अपना क्रोध छिपा नहीं सके और माउंटबेटन के प्रतिवाद को जड़ता करार दिया।"

माउंटबेटन ने कश्मीर में भारतीय टुकड़ियों की बढ़ी हुई सैन्य क्षमताओं के बारे में जिन्ना को बताया और यह साफ कर दिया कि अब कबायलियों के श्रीनगर में प्रवेश करने की संभावना बहुत कम थी। इससे जिन्ना को झटका लगा क्योंकि पाकिस्तान के नेता ने अपने रवैये को काफी नाटकीय ढंग से बदल दिया। मैं सीधे डायरी से उद्धृत करूंगा: “इसने जिन्ना को अपना पहला सामान्य प्रस्ताव देने को प्रेरित किया, जो यह था कि दोनों पक्षों को एक साथ और एक समय पर वापस लौट जाना चाहिए। जब माउंटबेटन ने उनसे यह बताने के लिए कहा कि कबायलियों को वापस हटने के लिए कैसे प्रेरित किया जा सकता है, तो उनका जवाब था 'अगर आप ऐसा करते हैं तो मैं पूरी बात को बंद कर दूंगा।' जो साबित करता है कि कबायली आक्रमण को पाकिस्तान के नियंत्रण से परे बताने की सार्वजनिक प्रचार की लाइन पर कम से कम निजी चर्चा में बहुत देर तक टिका नहीं रहा जा सकता था।"

दूसरे शब्दों में जिन्ना ने बहुत शुरुआत में ही स्वीकार कर लिया कि पाकिस्तान ने कबायली हमला शुरू किया और जंग की शुरुआत की थी।

जिन्ना अनिश्चितता और विरोधाभास का एक अजीब मिश्रण थे। माउंटबेटन ने पहली बार यह विचार पेश किया कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रबंधित एक जनमत संग्रह एक समाधान हो सकता है। जिन्ना ने साफ तौर पर इस सुझाव को खारिज कर दिया।

जिन्ना का मानना था कि आम मुस्लिम कश्मीरी पाकिस्तान को वोट नहीं देंगे, हालांकि उन्होंने इसके लिए "डर" को जिम्मेदार ठहराया। कैंपबेल-जॉनसन ने जिन्ना के रुख का वर्णन किया: “ जांचने पर माउंटबेटन ने पाया कि जनमत संग्रह पर जिन्ना का रवैया उनके इस भरोसे पर आधारित था कि भारतीय सैनिकों के कब्जे और शेख अब्दुल्ला की सत्ता के गठजोड़ का मतलब था कि आम मुस्लिम पाकिस्तान को वोट देने के लिए बहुत डरा हुआ होगा। माउंटबेटन ने संयुक्त राष्ट्र संगठन के तत्वावधान में एक जनमत संग्रह का प्रस्ताव रखा, जबकि जिन्ना ने जोर देकर कहा कि केवल दो गवर्नर-जनरल इसे व्यवस्थित कर सकते हैं। ”

इस सुझाव को खारिज करने की बारी अब माउंटबेटन की थी।

कैंपबेल-जॉनसन के अनुसार, “ जिन्ना का मिजाज अवसाद से भरा और  लगभग भाग्यवादी था। वह लगातार यही राग अलापते रहे कि भारत उनके द्वारा बनाए गए देश को नष्ट करने के लिए निकला था और सीमा के उस पार के हर व्यक्ति और नीतिगत कार्यों के प्रति उनका दृष्टिकोण उस सामान्य धारणा से रंगा हुआ था।"

इसके पूरी तरह से विपरीत गांधीजी दिल्ली में उसी दिन कश्मीर के बारे में पूर्ण रूप से निश्चित थे। उन्होंने 1 नवंबर, 1947 की शाम को अपनी प्रार्थना सभा को बताया (जिसमें दिलीप रॉय द्वारा एक भजन शामिल किया गया था, जिसकी पंक्ति थी, हम उस भूमि से संबंधित हैं जहाँ कोई दुःख नहीं है और कोई आह नहीं है): “ यहाँ से जाने वाले विमानों की संख्या से मुझे लगता है कि वे सभी सैनिकों को कश्मीर ले जा रहे हैं। कुछ कायर वहां से भाग रहे हैं। उन्हें ऐसा क्यों करना चाहिए? और वे कहां जाएंगे? उन्हें एक वीरतापूर्ण लड़ाई क्यों नहीं लड़नी चाहिए और अपनी जान देनी चाहिए? इस हालत में भले ही पूरा कश्मीर धराशायी हो जाए लेकिन मैं प्रभावित नहीं होने वाला। मैं खुशी-खुशी आपसे यह भी कहूँगा कि आप इस पर खुशी मनाएँ, लेकिन इस शर्त पर कि हर किसी को, युवा और बूढ़े को वहाँ मरना चाहिए। अगर कोई पूछता है कि बच्चों को वहां क्यों मरना चाहिए, तो मैं कहूंगा कि बच्चे कहीं नहीं जा सकते। किसी भी हालत में वे अपने माता-पिता के साथ रहते हैं। जो सभी लोग कश्मीर में हैं, हम उन्हें हथियार कैसे मुहैया करा सकते हैं? मेरे जैसे व्यक्ति को हथियारों की जरूरत नहीं है। आखिरकार अगर हम जीवित हैं, तो हमें अपने जीवन का बलिदान करना होगा। तब अकेले हम कह सकते हैं कि आत्मा अमर है। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं, तो इसका मतलब है कि हम अपनी आत्मा को गुमराह करते हैं और शरीर की पूजा करते हैं। लेकिन शरीर को एक दिन मरना है। यदि बच्चा मां की गोद में है और जब मां मर जाती है तो वह भी मर जाता है। और जब कोई मरने को हो, तो उसे स्वेच्छा से मरने दो। उन्हें यह कहना चाहिए कि यदि अफरीदी [कबायली, जिन्होंने कश्मीर घाटी पर आक्रमण किया था] उन्हें खत्म करने के लिए आए हैं, तो वे अपने हिसाब से खत्म होना पसंद करेंगे। यहां तक ​​कि जो सैनिक वहां गए हैं वे भी खुशी से मर जाएंगे। वे वहां मरने के लिए गए हैं। वे कब जीवित रह सकते हैं? जब वे जानते हैं कि सब कुछ सुरक्षित है और कश्मीर पर अब कोई हमला नहीं चल रहा है और शांति अच्छी तरह से स्थापित है।”

यह एक शक्तिशाली संदेश था, जिसे संदेह या विद्वेष के बिना दिया गया था: भारत के सैनिक कश्मीर की सुरक्षा की गारंटी देंगे, हमलावरों को हराएंगे और अमन कायम करेंगे।

एलन कैंपबेल-जॉनसन ने गांधी के भाषणों को चर्चिल के भाषणों के लगभग समान बताया।  एक युद्ध में तपे ब्रितानी, जिनकी सेवा में संयुक्त अभियान और दक्षिण-पूर्व एशिया कमान में लॉर्ड माउंटबेटन के मुख्यालय स्टाफ में चार साल शामिल थे, जिन्हें सीआईई, ओबीई और लीजन ऑफ मेरिट (अमेरिका) से सम्मानित किया गया था, और जिन्होंने हिटलर की एक बारगी अजेय लगने वाली युद्ध मशीन के खिलाफ विंस्टन चर्चिल को जीत के लिए एक तबाह लेकिन अखंड ब्रिटेन का नेतृत्व करते देखा था, उसकी ब्रिटिश साम्राज्य को झुकाने वाले महात्मा के लिए इससे बड़ी कोई प्रशंसा नहीं हो सकती।

<strong>(एम. जे. अकबर एक सांसद और लेखक, सबसे नई पुस्तक</strong>-<strong>Gandhi’s Hinduism: The Struggle Against Jinnah’s Islam)</strong>.

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